रामधारी सिंह दिनकर पर निबंध | Essay on Ramdhari singh dinkar

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कवि परिचय – दिनकर जी का जन्म १६०८ में सेमरिया जिला मुंगेर (बिहार) में हुआ। आप पटना विश्वविद्यालय के सम्माननीय स्नातक है। इस समय आप केन्द्रीय सरकार की सेवा में दिल्ली में रहते हैं। साथ ही एम० पी० और फिल्म सेंसर बोर्ड के सदस्य हैं । व्यक्तित्व – प्रो० प्रकाशचन्द्र गुप्त के शब्दों में ‘गेहुँआा रंग, छरहरा बदन, गुलाबी चेहरा – दिल में धधकता अंगारा जिस पर इन्द्र धनु खेल रहे हों । ‘ – दिनकर की आत्मा, रचना का यही संक्षिप्ततम परिचय है। रचनायें – (१) रेणुका, (२) द्वंदगीत, (३) हुंकार, (४) रसवन्ती, (५) सामधेनी, (६) कुरुक्षेत्र, (७) रश्मिरथी, (८) मिट्टी की ओर । काव्य सौष्ठव – हिन्दी के प्रगतिशील साहित्य में दिनकर जी का विशिष्ट स्थान है। उन्होंने काव्यगत भावों में प्राचीन परंपरात्रों को त्याग कर नवीन संस्कृति एवं समाज की सृष्टि की है। ‘दिनकर’ की श्रात्मा को भरी जवानी की चट्टानी उमंगों ने विद्रोह करने के लिये विवश किया है। उनके काव्य का प्रारम्भ यौवन सुलभ सौन्दर्योपासना से होता है । जीवन का सुन्दर श्रृंगार, प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य एवं रूप की अटूट प्यास इन कविताओं में निहित है –

व्योम कुंजों की संखी श्रयि कल्पने या उतर हँस ले जरा वन फूल से । तत्पश्चात् तरुण अवस्था के खौलते रक्त ने कवि का वाणी में विद्रोही स्वर सजा दिये-

चांदनी की अलकों में गूथ, छोड़ दूँ क्या अपने अरमान । श्राह ! कर दूँ कलियों के बन्द मधुर पीढ़ाथों के वरदान ||

आपकी रचना में मस्ती, तन्मयता और ग्रोज विशेष रूप से हैं। मानवता के महान प्रेमी होने के नाते यापकी कविताओंों में कल्याणकारी तत्त्व विशेष रूप से उभर श्राया है। सफल गायक होने के कारण यापकी रचनाओं में पीड़ा है। भारतीय हृदय को मग्न कर देने वाली गर्जना है। और है निर्जीव शिरात्रों में प्राण फूंक देने वाली हुँकार । श्रापकी ‘हिमालय’ शीर्षक कविता में उत्कृष्ट कल्पना भावना एवं चिन्तनशीलता के उद्गार व्यक्त किये गये हैं-

मेरे नगपति! मेरे विशाल ?
साकार, दिव्य, गौरव विराट ? पौरुष के पूंजीभूत ज्वाल मेरी जननी के हिमकिरीट ? मेरे भारत के दिव्य भाल ।सुख-सिन्धु पंचनद, ब्रह्मपुत्र, गंगा यमुना की अमिय धार, जिस पुण्य भूमि की ओर वही, तेरी विगलित करुणा उदार ।कितनी मणियाँ लुट गई, मिटा कितना तेरा वैभव शेष | तू ध्यान मग्न ही रहा इधर, वीरान हुआ प्यारा स्वदेश | कितनी द्रुपदा के बाल खुले, कितनी कलियों का अंत हुआ। कह हृदय खोल चित्तौर यह कितने दिन ज्वाल वसंत हुआ?

वैशाली के भग्नावशेष से पूक. लिच्छवी शान कहाँ ? वन वन स्वतंत्रता- दीप लिये, फिरने वाला बलवान कहाँ ?
दिनकर जी शांति के समर्थक न होकर घोर विद्रोही एवं ग्रामूल क्रांति के समर्थक हैं—

रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्गं धीर । पर फेर हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम बीर ॥

कह दे शंकर से थाज कर फिर, प्रलय नृत्य वे एक बार । सारे भारत में गूँज उठे, हर हर बम बम का महोच्चार ॥

नचे तीव्र गति भूमि कील पर, अट्टहास कर उठें धराधर, उपटे अनल फटे ज्वाला मुख,

गरजे उथल पुथल कर सागर, गिरे दुर्गं जड़ता का ऐसा, प्रलय बुला दो प्रलयंकर ।

दिनकर जी ने दलित वर्ग एवं दीन दुखियों के मूक भावों को वाणी प्रदान की है। इस रूप में हम उन्हें दलित दुखियों का प्रतिनिधि कवि कह सकते हैं, क्योंकि उन्हीं का करुण क्रन्दन सुनकर दिनकर का कोमल एवं भावुक मन ‘हुंकार’ कर उठा है-

” श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं ।

माँ की हड्डी से चिपक, जाड़ों की रात बिताते हैं ।

युवती की लज्जा बसम बेंच, जब व्याज चुकाने जाते हैं ।

मालिक तब तेल फुलेलों पर, पानी सा द्रव्य बहाते हैं ।

पापी महलों का अहंकार, देता मुझको तब आमंत्रण ॥ “

‘सामधेनी’ में कवि का मन जग के कटु सत्य से परिचित होकर ग्राक्रांत क्रन्दन करने लगा है-

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, श्रादमी भी क्या श्रनोखा जीव होता है।

उलझनें अपनी बढ़ाकर स्वयं ही फंसता, और फिर जग बीच यो जगता न सोता है |

मैं न बोला किन्तु मेरी श्रात्मा बोली, कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण होते हैं विचारों के नहीं केवल, स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है ॥

‘रसवन्ती’ कवि की रसीली कविताओं का उत्कृष्ट संग्रह है। इसमें कवि ने भूमिका में स्वयं कहा है कि मैं प्रगल्भ अप्सरा के पीछे भटकता फिरा हूँ और ‘रहे फिर मेरे अनु अनु देवि, लुब्ध भिक्षुक से गीले गान’ | रसवन्ती के गीतों को आपने अबोध कल्पक के शिशु माना है-

ये बोध कल्पक के शिशु, क्या रीति जगत का जानें। कुछ फूटे रोमांच पुलक से, कुछ अस्फुट विस्मय से ॥

रुन कुन कुन पैंजनी चरण में, केश कुटिल बंधरारे नील नयनि इनके माँ देखो, दाँत ले हैं पय से ||

नहीं सीख पाये फिर भी, रुक सके न पुण्य प्रहर घुटनों बल चल पड़े, पुकारा तुमने देवालय से ॥

रखवन्ती की ‘बालिका से वधू’ कविता में आपकी भावुकता एवं वात्सल्य भावना उमड़ नाई है।

पीला वीर कोर में जिसके चकमक गोटा जाली । चली पिया के गाँव उमर के सोलह फूलों वाली ॥

भीग रहा मीठी उमंग से दिल का कोना कोना । बाहर बाहर इस देख लो, भीतर भीतर रोना ॥ माँ की ढीठ दुलार पिता की, घोलजवन्ती भोली । ले जायेगी हिय की मणि को अभी पिया की ढोली ॥

मंगल मय हो पंथ सुहागिन यह मेरा वरदान । हरसिंगार की टहनी से फूले तेरे अरमान ॥ 1 नारी के प्रति इनकी श्रद्धालु भावना कितनी पवित्र है-.

तुम्हारे अधरों का रस प्राण वासनां तट पर पिया अधीर । घरी श्रो माँ हमने है पिया, तुम्हारे स्तन का उज्ज्वल तीर ॥ सूक्ष्म कल्पना का भी रसवन्ती में अभाव नहीं है-

एक तार भी कात सुहागिन यह भी नहीं अकाज । स्यात् छिपा दे यहीं नग्न के किसी रोम की लाज ॥

‘कुरुक्षेत्र’ दिनकर जी की उत्कृष्ट काव्य कृति है । नंददुलारे वाजपेयी जी ने उसे प्रतिनिधि रचना मानी है। भदन्त ग्रानंद जी ने नये युग की नई गीता तथा हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने कुरुक्षेत्र को हिन्दी भाषा का गौरव स्वीकार किया है । माखनलाल चतुर्वेदी के शब्दों में ‘दिनकर ने मैथिली- शरण के आदर्श को प्रसाद के सपनों में तुलसीदास की सरलता से लिखा है ।’ दिनकर जी ने कुरुक्षेत्र की भूमिका में लिखा है –
” दरअसल इस पुस्तक में मैं प्रायः सोचता ही रहा हूँ । भीष्म के सामने पहुँच कर कविता जैसे भूल सी गई हो, फिर भी कुरुक्षेत्र न तो दर्शन है और किसी ज्ञानी के प्रौढ़ मस्तिष्क का चमत्कार । यह तो अन्ततः एक साधारण मनुष्य का शंकाकुल हृदय ही है जो मस्तिष्क के स्तर पर चढ़कर बोल रहा है ।” इसमें दिनकर जी ने महाभारत के भीष्म को आधुनिक दृष्टि से देखने का प्रयास किया है। दिनकर द्वारा कल्पित भीष्म का उदात्त वरेण्य रूप देखिए-

आई हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि योग नहीं जाने का अभी है इसे जानकर रुकी रहो पास कहीं और स्वयं लेट गये, वाणों का शयन, वाण का ही उपधानकर ||

व्यास कहते हैं रहे यों ही वे पढ़े विमुक्त, काल के करों से छीन मुष्टिगत प्राण कर ।

और पंथ जोहती विनीत कहीं घास पास, हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मानकर ।। दिनकर जी की चिन्तनशीलता कितनी प्रौढ़ एवं स्पष्ट है-

वह कौन रोता है यहाँ, इतिहास के अध्याय पर जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल हैं । प्रत्यय किसी बूढ़े कुटिल नीतिज्ञ के व्यवहार का जिसका हृदय उतना सलीन जितना कि शीर्ष वलक्ष है ।।

जो आप तो लढ़ता नहीं, कटवा किशोरों को मगर । श्राश्वस्त होकर सोचता, शोणित वहा, लेकिन गई. बच लाज सारे देश की ?

हर युद्ध से पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से, हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, ही उपचार एक अमोध है, क्या शस्त्र
अन्याय का, अपकर्ष का विष का, गरलमय द्रोह का

भाषा शैली – दिनकर जी की भाषा में प्रोज, प्रसाद एवं प्रवाह पर्याप्त मात्रा में है।
शब्द चयन में हुकार की सी ध्वनि सुनाई पड़ती है। भावानुकूल भाषा का रूप दर्शनीय है। शैली नवीनता लिये है । इनकी भाषा का रूप देखिए-

लहू में तैर तैर के नहा रहीं जवानियाँ |
साम्य की वह रश्मि स्निग्ध उदार कब खिलेगी, का खिलेगी विश्व में भगवान ?

कब सुकोमल ज्योति से प्रभिषिक्त हो सरस होंगे जली सूखी रसा के प्राण ?

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