आचार्य विनोबा भावे का जीवन परिचय | Acharya Vinoba Bhave biography in hindi

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पूरा नामविनायक राव भावे
दूसरा नामआचार्य विनोबा भावे
जन्म11 सितम्बर सन 1895
जन्म स्थानगगोड़े, महाराष्ट्र
धर्महिन्दू
जातिचित्पावन ब्राम्हण
पिता का नामनरहरी शम्भू राव
माता का नामरुक्मिणी देवी
भाइयों के नामबालकृष्ण, शिवाजी, दत्तात्रेय
कार्यसमाज सुधारक, लेखक, चिन्तक , स्वतंत्रता सेनानी
मृत्यु15 नवम्बर सन 1982

आचार्य विनोबा भावे का जीवन परिचय (Acharya Vinoba Bhave ki Jivanee Hindi Mein)

विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में एक गांव है, गागोदा। यहां के चितपावन ब्राह्मण थे, नरहरि भावे. गणित के प्रेमी और वैज्ञानिक सूझबूझ वाले। रसायन विज्ञान में उनकी रुचि थी। उन दिनों रंगों को बाहर से आयात करना पड़ता था। नरहरि भावे रात-दिन रंगों की खोज में लगे रहते. बस एक धुन थी उनकी कि भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सके। उनकी माता रुक्मिणी बाई विदुषी महिला थीं। उदार-चित्त, आठों याम भक्ति-भाव में डूबी रहतीं. इसका असर उनके दैनिक कार्य पर भी पड़ता था। मन कहीं ओर रमा होता तो कभी सब्जी में नमक कम पड़ जाता, कभी ज्यादा. कभी दाल के बघार में हींग डालना भूल जातीं तो कभी बघार दिए बिना ही दाल परोस दी जाती. पूरा घर भक्ति रस से सराबोर रहता था। इसलिए इन छोटी-मोटी बातों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था। उसी सात्विक वातावरण में 11 सितंबर 1895 को विनोबा का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम था विनायक. मां उन्हें प्यार से विन्या कहकर बुलातीं. विनोबा के अलावा रुक्मिणी बाई के दो और बेटे थे: वाल्कोबा और शिवाजी. विनायक से छोटे वाल्कोबा. शिवाजी सबसे छोटे. विनोबा नाम गांधी जी ने दिया था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’ लगाने का जो चलन है, उसके अनुसार. तुकोबा, विठोबा और विनोबा.

मां का स्वभाव विनायक ने भी पाया था। उनका मन भी हमेशा अध्यात्म चिंतन में लीन रहता. न उन्हें खाने-पीने की सुध रहती थी। न स्वाद की खास पहचान थीं। मां जैसा परोस देतीं, चुपचाप खा लेते. रुक्मिणी बाई का गला बड़ा ही मधुर था। भजन सुनते हुए वे उसमें डूब जातीं. गातीं तो भाव-विभोर होकर, पूरे वातावरण में भक्ति-सलिला प्रवाहित होने लगती. रामायण की चैपाइयां वे मधुर भाव से गातीं. ऐसा लगता जैसे मां शारदा गुनगुना रही हो। विनोबा को अध्यात्म के संस्कार देने, उन्हें भक्ति-वेदांत की ओर ले जाने में, बचपन में उनके मन में संन्यास और वैराग्य की प्रेरणा जगाने में उनकी मां रुक्मिणी बाई का बड़ा योगदान था। बालक विनायक को माता-पिता दोनों के संस्कार मिले। गणित की सूझ-बूझ और तर्क-सामथ्र्य, विज्ञान के प्रति गहन अनुराग, परंपरा के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से अलग हटकर सोचने की कला उन्हें पिता की ओर से प्राप्त हुई। जबकि मां की ओर से मिले धर्म और संस्कृति के प्रति गहन अनुराग, प्राणीमात्र के कल्याण की भावना. जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, सर्वधर्म समभाव, सहअस्तित्व और ससम्मान की कला. आगे चलकर विनोबा को गांधी जी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना गया। आज भी कुछ लोग यही कहते हैं। मगर यह विनोबा के चरित्र का एकांगी और एकतरफा विश्लेषण है। वे गांधी जी के ‘आध्यात्मिक उत्तराधिकारी’ से बहुत आगे, स्वतंत्र सोच के स्वामी थे। मुख्य बात यह है कि गांधी जी के प्रखर प्रभामंडल के आगे उनके व्यक्तित्व का स्वतंत्र मूल्यांकन हो ही नहीं पाया।

महात्मा गांधी राजनीतिक जीव थे। उनकी आध्यात्मिक चेतना सुबह-शाम की आरती और पूजा-पाठ तक सीमित थी। जबकि उनकी धर्मिक-चेतना उनके राजनीतिक कार्यक्रमों के अनुकूल और समन्वयात्मक थी। उसमें आलोचना-समीक्षा भाव के लिए कोई स्थान नहीं था। धर्म-दर्शन के मामले में यूं तो विनोबा भी समर्पण और स्वीकार्य-भाव रखते थे। मगर उन्हें जब भी अवसर मिला धर्म-ग्रंथों की व्याख्या उन्होंने लीक से हटकर की। चाहे वह ‘गीता प्रवचन’ हों या संत तुकाराम के अभंगों पर लिखी गई पुस्तक ‘संतप्रसाद’. इससे उसमें पर्याप्त मौलिकता और सहजता है। यह कार्य वही कर सकता था जो किसी के भी बौद्धिक प्रभामंडल से मुक्त हो। एक बात यह भी महात्मा गांधी के सान्न्ध्यि में आने से पहले ही विनोबा आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त कर चुके थे। आश्रम में आनने के बाद भी वे अध्ययन-चिंतन के लिए नियमित समय निकालते थे। विनोबा से पहली ही मुलाकात में प्रभावित होने पर गांधी जी ने सहज-मन से कहा था—

बाकी लोग तो इस आश्रम से कुछ लेने के लिए आते हैं, एक यही है जो हमें कुछ देने के लिए आया है।
दर्शनशास्त्र उनका प्रिय विषय था। आश्रम में दाखिल होने के कुछ महिनों के भीतर ही दर्शनशास्त्र की आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने एक वर्ष का अध्ययन अवकाश लिया था

विनोबा भावे का बचपन और शिक्षा (Vinoba Bhave’s childhood and education)

संत त विनोबा भावे का पूरा नाम वनायक नरहरि भावे था। बचपन में गाँव, घर के लोग उन्हें ‘विनोबा’ नाम से पुकारते थे। बचपन में माता-पिता के लाड़-दुलार से लेकर विश्व भर में संत विनोबा भावे का सम्मानति दरजा पाने तक की जीवन-यात्रा विनोबाजी ने इसी नाम के साथ संपन्न की। विनोबाजी जैसे-जैसे उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते गए, उनका नाम भी कामयाबी की मंजलिं तय करता गया और एक समय ऐसा भी आया जब विनोबाजी का नाम घर-गाँव की चारदीवारी से नकलिकर पंत और देश की सीमाओं को लाँघते हुए विश्व स्तर पर सुंध बिखेरने लगा। बचपन के विनोबा ने संत विनोबा भावे तक की अपरमिति उपलब्धियाँ और दायत्व इसी संबोधन के साथ नभाए।
पारवारकि पृष्ठभूमि और बाल्यकाल
संत विनोबा भावे का जन्म 11 सतिंबर, 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जलि के गंगोड़ नामक ग्राम में हुआ था। विनोबाजी के पिता का नाम श्री नरहरि शिंभोराव और माता का नाम श्रीमती रुक्मिणी देवी था। वनियक के परवार में उनके अलावा एक बहन व तीन भाई और थे। वनायक अपने माता-पिता के सबसे बड़े पुत्र थे। विनोबा का बचपन उनके पैतृक गाँव गंगोड़ में उनके दादा-दादी एवं माता की देखरेख में बीता। ग्रामीण जीवन-शैली के साथ-साथ ही विनोबाजी का परविार धार्मकि मूल्यों एवं पारंपरकि मान्यताओं को मानने वाला एक संयुक्त परविार था। परविार की आर्थकि स्थिति सामान्य थी, ले का वातावरण ब्राह्मण परविारों की तरह ही अत्यंत संस्कारयुक्त एवं धार्मकि था। परविार में सबसे बड़े पुत्र होने के नाते विनोबाजी को पूरे परविार का भरपूर लाड़-दुलार मला । पारवारकि वातावरण और परविार के सदस्यों के आचार-व्यवहार ने विनोबाजी के चरतर को गढ़ने में महत्त्वपूर्ण भूमका नभाई। जहाँ एक ओर उन्हें माता से त्याग, प्रेम और सेवाभाव के गुण मलि थे, वहीं पिता से संघर्षशीलता और कठोर परश्रम करने की

विनोबा भावे के विचार (Acharya Vinoba Bhave Quotes And Thoughts)

“मनुष्य जितना ज्ञान में घुल गया हो उतना ही कर्म के रंग में रंग जाता है। “ ~ आचार्य विनबा भावे


“जिस राष्ट्र में चरित्रशीलता नहीं है उसमें कोई योजना काम नहीं कर सकती। “” ~ आचार्य विनबा भावे


“ऐसे देश को छोड़ देना चाहिए जहाँ न आदर है, न जीविका, न मित्र, न परिवार और न ही ज्ञान की आशा। “ ~ आचार्य विनबा भावे


“स्वतंत्र वही हो सकता है जो अपना काम अपने आप कर लेता है। “~ आचार्य विनबा भावे


“विचारकों को जो चीज़ आज स्पष्ट दीखती है दुनिया उस पर कल अमल करती है। “~ आचार्य विनबा भावे

“केवल अंग्रेज़ी सीखने में जितना श्रम करना पड़ता है उतने श्रम में भारत की सभी भाषाएँ सीखी जा सकती हैं। “~ आचार्य विनबा भावे
“कलियुग में रहना है या सतयुग में यह तुम स्वयं चुनो, तुम्हारा युग तुम्हारे पास है। “~ आचार्य विनबा भावे

“प्रतिभा का अर्थ है बुद्धि में नई कोपलें फूटते रहना। नई कल्पना, नया उत्साह, नई खोज और नई स्फूर्ति प्रतिभा के लक्षण हैं। “~ आचार्य विनबा भावे
“महान विचार ही कार्य रूप में परिणत होकर महान कार्य बनते हैं। “~ आचार्य विनबा भावे


“जबतक कष्ट सहने की तैयारी नहीं होती तब तक लाभ दिखाई नहीं देता। लाभ की इमारत कष्ट की धूप में ही बनती है। “~ आचार्य विनबा भावे
“द्वेष बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते, प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है। “~ आचार्य विनबा भावे


“जिसने ज्ञान को आचरण में उतार लिया, उसने ईश्वर को मूर्तिमान कर लिया। ~ आचार्य विनबा भावे


“हिन्दुस्तान का आदमी बैल तो पाना चाहता है लेकिन गाय की सेवा करना नहीं चाहता। वह उसे धार्मिक दृष्टि से पूजन का स्वांग रचता है लेकिन दूध के लिये तो भैंस की ही कद्र करता है। हिन्दुस्तान के लोग चाहते हैं कि उनकी माता तो रहे भैंस और पिता हो बैल। योजना तो ठीक है लेकिन वह भगवान को मंजूर नहीं है। “~ आचार्य विनबा भावे


“मौन और एकान्त, आत्मा के सर्वोत्तम मित्र हैं।“ ~ आचार्य विनबा भावे

विनोबा भावे के कार्य क्षेत्र(Vinoba Bhave’s work area)

  • भूदान यज्ञ विनोबाजी का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इसके साथ-साथ उन्होंने भारत की दुःखी जनता के लिए श्रमदान तथा अन्त्योदय आन्दोलन भी आरम्भ किये। आपका ध्यान ग्रामीणों की समस्याओं की ओर गया।
  • उन्होंने भूमिहीनों को भूमि देने के लिए उन लोगों से प्रार्थना की जिनके पास बहुत अधिक भूमि थी। भूमिहीनों को भूमि देने का कार्य आरम्भ हो गया। सबसे पहले रामचन्द्र रेड्डी ने सौ एकड़ भूमि देने की घोषणा की। इसके बाद अन्य लोगों ने यथाशक्ति भूमि देना आरम्भ किया। श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने तथा डॉ. प्रकाश इत्यादि ने भूदान किया।
  • आप प्रतिदिन कुछ न कुछ भूमि प्राप्त करते थे। वे इस भूमि को तुरन्त ही भूमिहीनों को यथोचित रूप में दे देते थे। अपनी दो महीने की यात्रा में आपने 13426 एकड़ भूमि प्राप्त की और भूमिहीनों में बाँट दी।
  • आपने लगभग सात वर्ष तक पदयात्रा की। इस पदयात्रा में आपने लोगों के हृदय का परिवर्तन किया। लोगों में भूमिहीनों को भूमि देने का उत्साह पैदा हुआ। बड़े-बड़े जमींदार, राजा-महाराजा तथा सेठ-साहूकारों ने इस भूमिदान तथा श्रमदान में भाग लिया।
  • इस भूमिदान या श्रमदान महायज्ञ में राजनीति बिल्कुल नहीं थी। प्रजा की शुद्ध भावना से सेवा की। अतः लोकनायक जयप्रकाश एवं लाखों लोगों ने अपने आपको इस महायज्ञ की सफलता के लिए समर्पित कर दिया।
  • विनोबाजी अच्छे लेखक थे। आप गीता के मर्मज्ञ थे। आपने गीता की बहुत सुन्दर टीका की। इसके अतिरिक्त आपने भूदान तथा श्रमदान के सम्बन्ध में अनेक पुस्तकें लिखीं।
  • आपने डाकू-समस्या को अपने हाथ में लिया। आपने अपने निकट के साथियों के साथ चम्बल के डाकू क्षेत्र में प्रवेश किया। डाकुओं को समझाया। आपके उपदेशों से प्रभावित होकर डाकुओं ने समर्पण कर दिया।

विनोबा भावे के साहित्यिक कार्य (Literary Work)

उन्होंने अपने जीवन में बहुत सी किताबे लिखी थी, जैसा कि ऊपर भी बताया वो मराठी, तेलुगु, गुजराती, कन्नड़, हिंदी, उर्दू, इंग्लिश और संस्कृत भाषा के जानकार थे. और उन्होंने बहुत से संस्कृत किताबों का अनुवाद किया था. विभिन्न भाषाओँ उनकी लिखी मुख्य किताबें निम्न हैं-

अंग्रेजी खादी एवं कुछ अन्य पुस्तकें


मराठी – भारत रतन आचार्य विनोबा गाथा,एकी राहा,नेकिने वागा,भारताचा धर्मविचार,संतांचा प्रसाद,आध्यात्म-तत्व सुधा,समता आजचा युगधर्म,ग्रामस्वराज्य,सत्याग्रह-विचार,स्वराज्य-शास्त्र,ही एकादश सेवावी…,नाम माला,विचार पोथी,महागुहेत प्रवेश,सर्व धर्म प्रभुचे पाय,मनुशासनम,वेलोर प्रवचने,स्थितप्रज्ञ-दर्शन,गीता-प्रवचने,गीताई,ज्ञान ते सांगतो पुन्हा,गीता जीवनाचा ग्रन्थ,गीताई शब्द कोष,ज्ञानोबा माउली,तुका आकाशाएवढा,अभंग व्रते, शिक्ष्ण तत्व आणि व्यवहार,गीताई चिंतनिका,मी माणूस आहे,विठोबाचे दर्शन,गीता-सार, इत्यादि


हिंदी – वेदामृत,विनायांजली,अहिंसा की तलाश,इस्लाम का पैगाम, इत्यादि

म्रुत्यु :

नवंबर 1982 में जब उन्हें लगा कि उनकी मृत्यु नजदीक है तो उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया जिसके परिणामस्वरूप 15 नवम्बर, 1982 को उनकी मृत्यु हो गई. उन्होंने मौत का जो रास्ता तय किया था उसे प्रायोपवेश कहते हैं जिसके अंतर्गत इंसान खाना-पीना छोड़ अपना जीवन त्याग देता है. गांधी जी को अपना मार्गदर्शक समझने वाले विनोबा भावे ने समाज में जन-जागृति लाने के लिए कई महत्वपूर्ण और सफल प्रयास किए. उनके सम्मान में उनके निधन के पश्चात हज़ारीबाग विश्वविद्यालय का नाम विनोबा भावे विश्वविद्यालय रखा गया.

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