शिक्षित बेरोजगारी की समस्या भारत के लिए एकदम अपरिचित वस्तु नहीं, इति– हास के पृष्ठों से हमें पता चलता है कि बेकारी की समस्या कम या अधिक किसी न किसी रूप में सदा से रही है और इसे दूर करने में ही समाज शास्त्रियों ने अपना अमूल्य मस्तिष्क खपाया है किन्तु परिस्थितियों वश द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति पर इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। श्रमिक वर्ग की बेकारी उतनी चिन्त्य नहीं है जितनी शिक्षित वर्ग की । श्रमिक वर्ग श्रम के द्वारा कहीं न कहीं सामयिक काम पाकर अपना काम चला लेता है, आवश्यकताएँ सीमित होने पर संतोष के साथ सूखी रोटी खाकर मानसिक स्वास्थ को बनाये रखता है, किंतु वर्तमान संसार की गतिविधि एवं नित नवीन सुविधाओं से परिचित शिक्षित वर्ग जीविका के अभाव में शारीरिक एवं मानसिक दोनों व्याधियों का शिकार बनता है। व्यावहारिकता से शून्य पुस्तकीय शिक्षा के उपार्जन में अपने स्वास्थ को तो खो ही देता है, साथ ही शारीरिक श्रम से पराङ्मुख हो अकर्मण्य बन जाता है । परम्परागत पेशे में उसे एक प्रकार की झिझक का अनुभव होता है, उसका खोखला शैक्षिक स्तर गिरता है।
शिक्षित वर्ग की बेकारी की समस्या पर प्रकाश डालते हुए लखनऊ के पत्रकार सम्मेलन में प्रधान मंत्री जी ने कहा था कि ‘हर साल ६ लाख पढ़े-लिखे लोग नौकरी के लिए तैयार हो जाते हैं जब कि हमारे पास मौजूदा हालन में एक सैकड़े के लिये भी नौकरियाँ नहीं हैं। पंडित जी के इस कथन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शिक्षितों की माँग से कहीं अधिक पूर्ति होना ही इस समस्या का मूल कारण है। विश्वविद्यालय, कालेज, स्कूल प्रतिवर्ष अक- र्मय बुद्धिजीवी कलम और कुर्सी से जूझने वाले बाबूलों को पैदा करते जा रहे हैं।
नौकर शाही तो भारत से चली गई किंतु नौकर शाही की बू भारतवासियों के मस्तिष्क से नहीं गई । लार्ड मैकाले के स्वप्न की नींव भारतवासियों के मस्तिष्क में भर गई है। विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये आया हुआ विद्यार्थी आई० ए० एस० और पी० सी० एस० के नीचे तो सोचता ही नहीं, यही हाल हाई स्कूल और इन्टर वालों का है, ये छुट भैये भी पुलिस की सब-इन्सपेक्टरी और रेलवे की नौकरियों का दरवाजा खटखटाते रहते हैं। इन पंक्तियों का लेखक कई ऐसे संभ्रान्त परिवार के व्यक्तियों को जानता है जिनके घर में ही इतना
अधिक काम है कि वे नौकरी से तिगुना चौगुना अपने घर में ही कमा सकते हैं, कई व्यक्ति ऐसे हैं जिनके यहाँ लम्बे पैमाने पर खेती हो रही है, यदि वे अपनी शिक्षा का सदुपयोग वैज्ञानिक प्रणाली से खेती करने में करें तो देश का भाग्य ही सुधर जाय किंतु वे अभागे सौ- सवा सौ की नौकरी में अपने घर से बहुत दूर रह कर ही अपने को भाग्यशाली समझ रहे हैं।
अतः ग्राज इस बात की बहुत बड़ी ग्रावश्यकता है कि स्वतन्त्र भारत के स्वतंत्रचेताओं के मस्तिष्क से पढ़ लिख कर छोटी मोटी नौकरी पा लेने का भूत निर्दयता पूर्वक निकाला जाय । श्राय दिन पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलता रहता है कि सरकार उच्च शिक्षा सम्पन्न व्यावहारिकता शून्य बौद्धिकताको अपेक्षाकृत अधिक मान्यता देने के पक्ष में बिल्कुल नहीं है, यहाँ तक कि कहीं कहीं इसे हतोत्साहित भी किया जाता है ।
कोरी बौद्धिकता की अपेक्षा ठोस शारीरिक श्रम की देश को इस समय अधिक आवश्यकता है। शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद का कथन है कि शिक्षित वर्ग की बढ़ती हुई बेकारी का कारण यही है कि तुलनात्मक रूप में जितने व्यक्तियों की श्रावश्यकता होती है उससे कई गुने अधिक हमें सरलता से मिल जाते हैं। मौलाना साहब विश्वविद्यालयों की शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगाकर व्यावसायिक शिक्षा देने के पक्ष में हैं ।
नई दिल्ली, २३ मई १६५६ को लोक सभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रम मंत्री श्री खांडू भाई देसाई ने कहा कि भारत में बेकारों की संख्या सबसे अधिक पश्चिमी बंगाल में है । ३१ मार्च १६५६ तक बेकारी के दफ्तरों में यह संख्या पश्चिमी बंगाल में १,१४,८७१ थी, इसके बाद उत्तर प्रदेश में बेकारों की संख्या १,११,६८५ है । बेकारों को दफ्तरों की सहायता से ३१ मार्च १९५६ तक १७८५ व्यक्तियों को काम मिला । बेकारों की इस संख्या में शिक्षित बेकारों की ही संख्या अधिक है ।
शिक्षित वर्ग की बेकारी को दूर करने के वर्तमान दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन करना आवश्यक है। व्यावहारिक जीवन से शून्य शिक्षा का बहिष्कार जितनी जल्दी किया जा सके, उतना ही देश के
लिए शुभ एवं कल्याणकारी है। शिक्षा सैद्धान्तिक न होकर पूर्णतः व्यावहारिक होनी चाहिए ताकि स्वालम्बी स्नातक पैदा हो सकें और देश की भावी उन्नति में योग दे सकें, न कि भारस्वरूप बनकर उसकी स्वाभाविक प्रगति में गले में बँधे भारी पत्थर सिद्ध हों । श्रौद्योगिक शिक्षा प्रणाली में शरीर एवं मस्तिष्क का समान संतुलन है, अतः इस प्रकार की शिक्षा हमारे लिये लाभप्रद है ।
शिक्षित वर्ग की बेकारी का एकदम से विकराल रूप धारण कर लेने का एक कारण द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के फलस्वरूप अनेक फ़ौजी कामों में लगे व्यक्तियों का वेकार हो जाना है क्योंकि उन्हें कहीं स्थाना- पन्न करने की गुंजायश थी ही नहीं। भारत में श्रौद्योगिक विकास की प्रगति बड़ी ही मंद गति से हो रही है, यह भी किसी सीमा तक बेकारी फैलाने की उत्तरदायी है। भारत में इंगलैंड की तुलना में केवल ४० पेशे हैं, जब कि वहाँ पर कुल मिलाकर १६०० के आसपास हैं ।
वर्तमान बेकारी की विभीषिका को शिक्षा के ही मत्थे मढ़ना एक प्रकार से पूर्ण न्याय का गला घोंटना होगा। यह कहना कि वर्तमान बेकारी का भार अधिकांश रूप में शिक्षित वर्ग पर ही है, सत्य से दूर हट जाना होगा । अभी हमारे देश में शिक्षा का प्रचार हुग्रा ही कहाँ है । ३५७० लाख की जनसंख्या में साढ़े तीन लाख व्यक्ति ही स्नातक ( ग्रेजुयेट) हैं, इस प्रकार हज़ार के पीछे एक व्यक्ति शिक्षित माना जायगा । अतएव ‘माँग की अपेक्षा पूर्ति का बहुत अधिक होना’ उपरोक्त मत त्रुटिपूर्ण है । सत्य तो यह है कि हमारे देश की कृषि और औद्योगिक प्रगति में अभी इतनी शक्ति नहीं आई कि वह रोजगारी की समस्या को सही रूप में हल कर सके ।
हमारे यहाँ की कृषि प्रणाली अभी वैज्ञानिक नहीं बन पाई, खेत टुकड़ों में बँटे हैं। रासायनिक खाद के अभाव में उनकी उर्वरा शक्ति क्रमशः क्षीण होती जाती है । अतः कृपक-पुत्रों को विवश होकर नौकरी का श्राश्रय लेना पड़ता है। दस व्यक्तियों के एक कुटुम्ब में खेती के द्वारा केवल प्रा व्यक्तियों का ही भरण पोषण हो सकता है, शेष के लिए नौकरी के प्रति
रिक्त कोई उपाय ही नहीं है, श्रौद्योगिक शिक्षा के अभाव में, घरेलू उद्योग धंधों से अनभिज्ञ एकमात्र नौकरी ही शेष बचती है ।”
-“व्यावसायिक शिक्षा का अभाव ही शिक्षित वर्ग की बेकारी का कारण है’ ऐसा कहना भी न्यायसंगत नहीं ठहरता, क्योंकि इस प्रकार का शिक्षण तो वहीं बेकारी को दूर कर सकता है जहाँ पर कि सुनियोजित श्रौद्योगिक प्रगति हो, इसके अभाव में व्यावसायिक शिक्षण विशेष महत्वपूर्ण सिद्ध नहीं होता ।
उपाय :- शिक्षित वर्ग की बेकारी दूर करने के लिए विभिन्न विद्वानों ने अपने मत प्रकट किये हैं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली को औद्योगिक शिक्षा प्रणाली में परिवर्तित करने के पक्ष में सभी एक मत हैं। इस समस्या को ” सुलझाने के लिए कई कमीशनों की स्थापना की गई है । कतिपय विद्वानों का सुझाव है कि उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में कुटीर उद्योग धंधों एवं हस्त कौशल की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए ताकि विद्यार्थी शिक्षा समाप्त कर लेने पर स्वतंत्र रूप से अपनी जीविका चला सके । सर्व- पल्ली राधाकृष्णन कमीशन कृषि शिक्षण के पक्ष में है । वह प्राइमरी, उच्चतर माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा, सभी में कृषि – शिक्षण को प्राथमिकता देने का हिमायती है ।
ऐसा देखा जाता है कि जिस व्यक्ति का जिस श्रोर झुकाव होता है, उसके व्यक्तिगत गुणों के विकास के लिए पर्याप्त सुविधाएँ एवं उचित वाता- वरण नहीं मिल पाता । उपयुक्त परिस्थितियों के अभाव में कुशल इंजीनियरिंग की प्रतिभा वाले व्यक्ति को अध्यापकी करनी पड़ती है, वकील को डाक्टर बनना पड़ता है, चित्रकार, कवि, संगीतज्ञों को विवश होकर पेट-रोटी के लिए अपनी कला से पराङ्मुख हो कोई दूसरा धंधा अपनाना पड़ता है । इस प्रकार की राष्ट्रीय क्षति बहुत ही शोचनीय है । श्राज के प्रगतिशील सभ्य देशों में मनोविज्ञान के पंडित छात्रों की प्रारंभिक अवस्था से ही व्यक्तिगत रुचि एवं प्रवृत्तियों का अध्ययन करने लगते हैं और जिस चोर उनकी प्रतिभा एवं व्यक्तिगत गुणों का सर्वाधिक विकास संभव हो सकता है उसी ओर उन्हें जाने की सम्मति देते हैं ।
यही कारण है कि यहाँ की अपेक्षा वहाँ कहीं अधिक मौलिक विचारक, विज्ञानवेत्ता, अन्वेषक एवं कलाकार पैदा होकर राष्ट्र की प्रतिभा में चार चाँद लगा देते हैं। वैयक्तिक गुणों के पूर्ण विकास के लिए हमें इसी पद्धति को स्वीकार करने में किंचित् हिचकिचाहट न होनी चाहिए। सबको अपनी प्रतिभा का पूर्ण विकास करने के लिए उचित वातावरण मिले, पर्याप्त सुविधाएँ सुलभ हों, ऐसा व्यापक प्रयत्न सरकार को शीघ्र ही करना चाहिए।
अपने यहाँ की प्राकृतिक स्थितियों, परिस्थितियों एवं उलझनों का हल यहीं की मिट्टी-पानी से निकालना श्रेयस्कर होगा । ‘गाँवों के देश भारत की समृद्धि संभवत: नागरिक पाश्चात्य पद्धति से पूर्णतः न हो सके, इसे भी न भूलना होगा, तभी हमारा सर्वागीण विकास संभव है ।