भारत में बेरोजगारी की समस्या पर निबंध (Essay on the Problem of Unemployment in India)

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प्रायः बेरोजगारी की समस्या का आरोप सामान्यतया शिक्षित मध्यम – श्रेणी की वेरोजगारी को सामने रख कर किया जाता है । किन्तु वस्तुतः यह एकांगी दृष्टिकोण है। चाहे फावड़ा चलाकर रक्त स्वेद सिक्त रोटियाँ खाने वाले मजदूर हों, चाहे वर्षा, शीत, ग्रीष्म में अपने शरीर एवं सुख का होम करने वाले कृषक हों, चाहे मशीनों के सम्पर्क में स्वयं यंत्र बने फैक्टरी के कर्मचारी हों या चाहे अनवरत बौद्धिक परिश्रम करने वाले अपने स्वास्थ्य के शत्रु स्नातक हों, यदि वे अपनी आशाओं को पूरी नहीं कर पाते, अपने श्राश्रित कुटुम्बियों का भरण-पोषण नहीं कर पाते तो वे न केवल कुटुम्ब के भार बन जाते हैं वरन् उन्हें स्वयं अपने आप से भी चिढ़ हो जाती है । इस प्रकार बेरोजगार के शिकार सभी वर्ग के पढ़े-लिखे निरक्षर – साक्षर व्यक्ति हो सकते हैं । सुविधा के लिए हम इन्हें दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-
(१) पढ़े-लिखे – मध्यम श्रेणी के बाबूगीरी ( Clerical job ) करने के इच्छुक व्यक्ति ।

(२) शारीरिक परिश्रम करने वाले अशिक्षित व्यक्ति — मजदूर किसान -आदित
भारत में बेरोजगारी की समस्या बहुत समय से चली आ रही है किन्तु – वर्तमान समय में जैसा गंभीर रूप इसने धारण कर लिया है वैसा कभी नहीं था। द्वितीय महायुद्ध के पूर्व बेरोजगारी की समस्या वर्तमान थी । महायुद्ध इस वेरोजगारी रूपी अभिशाप के लिए वरदान बन कर थाया और सब श्रेिणी के व्यक्तियों को उनके अनुरूप काम मिल गया । बेरोजगार की समस्या अंशतः हल हो गयी । बेकार वर्ग अपने-अपने काम में लग गए, सब को पेट भर रोटी मिलने लगी और एक प्रकार से अप्रत्यक्ष रूप से समाज में सुख तथा संपन्नता छा गयी किन्तु युद्ध की समाप्ति के पश्चात् युद्ध संबंधी विभिन्न कार्यों में आयोजित व्यक्ति बेकार हो गए और वेकारी की समस्या दुगुने बल से पुनः बढ़कर सुख-शांति को चुनौती देने लगी ।

अपने देश में बेरोजगारी की समस्या एक विचित्र रूप में वर्तमान है । पाश्चात्य देशों में व्यापार में मन्दी आ जाने के कारण कुछ समय के लिए उत्पादन की माँग में कमी आ जाने से बेकारी की समस्या उठ खड़ी होती है । किन्तु हमारे यहाँ माँग की कमी बेरोजगारी का कारण नहीं है वरन् उपभोग संबंधी वस्तुओं की अधिकता के स्थान पर उनका अभाव ही है। देश में वस्तुनों और सेवाओं का अभाव होते हुए भी अधिकांश मात्रा में श्रमिक शक्ति शून्य पड़ी हैं। एक ओर तो देश में सभी प्रकार के उत्पादन की कमी है और दूसरी और उत्पत्ति के बहुत से मानव साधन प्रयुक्त पड़े हैं । स्पष्टतया पूँजी और साहस की कमी ही बेरोज़गारी का प्रमुख कारण है । यहाँ पर बेरोज़गारी और शिक रोजगारी दोनों ही की समस्याएँ अत्यंत जटिल है । उत्तरी भारत में किसान को वर्ष में सात महीने बेकार रहना पड़ता है जबकि खाली ऋतुत्रों में दिन भर में उसे केवल एक या दो घंटे ही काम करना पड़ता है। भूमि रहित कृषि श्रमिकों की दशा और भी अधिक खराब है, उनकी संख्या कुल ग्रामीण जनता की है परन्तु उन्हें वर्ष में केवल ५-६ महीने के लिए ही काम मिलता है और शेष महीनों में मक्खियाँ मारनी पड़ती है ।

बेरोजगारी के कारण-

(१) जनसंख्या में तेजी के साथ वृद्धि ।
(२) ग्रामीण और कुटीर उद्योगों का ह्रास। इसके कारण बहुत से लोगों को ग्रामीण अथवा नगर क्षेत्रों में जो थोड़े समय के लिए काम मिल जाता था वह समाप्त हो गया है। कुटीर उद्योगों की उन्नति का अनुपात जनसंख्या की वृद्धि के अनुपात से कम पड़ता है ।
(३) बढ़ती हुई जनसंख्या को कृषि के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में रोज- गार की अधिक सुविधाओं का अभाव ।
(४) देश के विभाजन के कारण जनसंख्या के तितर-बितर हो जाने से रोजागर का समाप्त हो जाना ।
समस्या का हल
(१) देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के वेग को रोकने या कमी करने की विशेष आवश्यकता है। क्योंकि देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के अनुपात में हमरे यहाँ की उत्पादन शक्ति पूरी नहीं हो पाती । १६५१ में भारत की जनसंख्या ३६ करोड़ थी और अनुमान यह लगाया गया कि सन् १६८१ में ५६ करोड़ हो जायगी, इस प्रकार जनसंख्या को न रोकने से श्रार्थिक विकास योजना द्वारा जीवन स्तर को ऊँचा उठाने की आशा करना केवल मृग मरीचिका ही होगी। सबसे बड़ा प्रश्न हमारे समाने यही है कि रोजगार की समस्या को सुलझाये बिना हम जीवन स्तर को किस प्रकार ऊँचा उठा सकते हैं ।

अल्पकालीन दृष्टिकोण से जनसंख्या के बढ़ते वेग को रोकने के दो ही उपाय हो सकते हैं –

(१) संतति निग्रह ( २ ) विवाह की कम से कम आयु का नियमों द्वारा निर्धारण ।

(२) यहाँ पर कुटीर उद्योगों, नामीण उद्योगों तथा छोटे-मोटे हाथ से किए जाने वाले उद्योगों का तेजी के साथ अधिकाधिक संख्या में विकास होना चाहिए। इस प्रकार के उद्योगों में थोड़ी पूँजी की आवश्यकता होती है । इनका संचालन व्यय भी अधिक नहीं होता, छोटी-छोटी मशीनों और

शक्ति का उपयोग करके इनकी कुशलता को भी बढ़ाया जा सकता है। इनमें पूंजी की अपेक्षा श्रम की ही अधिक प्रधानता रहती है जिससे बड़े उद्योगों की अपेक्षा अधिक रोजगार मिल सकता है । इसीलिए ये बेरोजगारी की समस्या को निवारण करने में विशेष उपयुक्त है ।
(३) देश में शीघ्रातिशीघ्र ग्रौद्योगीकरण की भी आवश्यकता को कम नहीं किया जा सकता । हमारे देश में पूँजी और साहस के अतिरिक्त टेकनीकल तथा व्यावसायिक शिक्षण की भी भारी कमी है। यद्यपि सरकार ने देश में संचित पंजी, विदेशी पूंजी तथा शिल्पकारों के शिक्षण का महत्व पूर्ण प्रयत्न किया है परन्तु अभी इसमें अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है । जनता में उत्पादन वृद्धि के प्रति उत्साह का बढ़ाया जाना भी अत्यंत आवश्यक है।
(४) देश में यातायात एवं लोकहितकारी सेवाओं के विकास में योग देने की बहुत आवश्यकता है। सड़कें, रेलें, और हवाई सेवाएँ किसी भी प्रकार पर्याप्त नहीं कही जा सकतीं। किसी भी देश के प्रौद्योगिक, आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक विकास का होना भी विशेष आवश्यक है। रोजगार की दृष्टि से इनका विशेष महत्व है । सामाजिक तथा लोकहित कारी सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा यादि का भी भारी अभाव हमारी उन्नति में बाधक है । इन सेवाओं के विकास के द्वारा देश के आर्थिक, सामा- जिक एवं सांस्कृतिक स्तर को उठाया जा सकता है तथा जनसाधारण के लिए सामाजिक सुरक्षा की भी व्यवस्था की जा सकती है एवं इनके द्वारा बेरोजगारी को भी दूर किया जा सकता है। इनके माध्यम से शिक्षित एवं निपुण वर्ग के लिए अधिक रोजगार का प्रबन्ध किया जा सकता है।
(५) स्वयं खेती में रोजगार को बढ़ाने का अभी पर्याप्त स्थान है। लाखों एकड़ भूमि ऊसर अथवा बेकार पड़ी हुई है जिसे रासायनिक रीति से खाद देकर खेती के योग्य बनाया जा सकता है । वर्तमन परिस्थितियों में आधुनिक यंत्रों के द्वारा बड़े पैमाने से खेती करना संभवत: वेरोजगारी की समस्या को और भी अधिक जटिल कर दे । इसके स्थान पर सहकारी

खेती के द्वारा बेरोजगारी बहुत कुछ सीमा तक दूर की जा सकती है । खेती- के साथ-साथ सहायक उद्योग भी चलाये जा सकते हैं, जैसे सुधर पालना, मुर्गी पालना, दूध ‘उद्योग चलाना या अन्य प्रकार के कुटीर उद्योग करना ।
(६) जनता का ग्रामीण क्षेत्रों से उठकर नगर में थाना भी बेरोजगारी का कारण बन जाता है, इस पर भी रोक लगनी चाहिए । सामुदायिक विकास योजनात्रों को प्रश्रय मिलना चाहिए।
(७) पाठ्यक्रम तथा शिक्षा विधियों में आमूल परिवर्तन की विशेष श्रावश्यकता है, प्रयत्न इस प्रकार का किया जाना चाहिए जिससे कालिज और विश्वविद्यालय स्वावलम्बी स्नातक पैदा कर सकें। उनका राष्ट्रीय. जीवन के साथ एकीकरण हो सके । शिक्षा सैद्धांतिक न होकर व्याव- हारिक हो ।
इस प्रकार के अनेक साधनों से वेरोजगारी की जटिल समस्या को सुलझाया जा सकता है और समाज तथा देश में सुख-शांति एवं वैभव सम्पन्नता लायी जा सकती है। ‘बुभुक्षितः किं न करोति पाप” के आधार पर भूखा मनुष्य क्या नहीं कर सकता। भूखे व्यक्ति से किसी प्रकार की चारित्रिक दृढ़ता एवं आचरण की पवित्रता की आशा करना दुराशा मात्र है । वेरोजगारी समाज का अभिशाप है, शांति-सुख एवं सम्पन्नता का शत्रु है, विद्रोह या गृह कलह का पर्याय है। इसके दमन के लिए हम देश की नयी पीढ़ी का श्रावाहन करते हैं ।

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