कुटीर उद्योग एवं उनका महत्व पर निबंध (Short Essay on the importance of cottage industries)

5/5 - (1 vote)

वर्तमान सभ्यता को यदि यांत्रिक सभ्यता कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी । पश्चिमी देशों की यांत्रिक सभ्यता श्राज के युग में सम्पूर्ण संसार की सभ्यता बन चुकी है। यंत्र रूपी शांति ने शनैः-शनैः ग्राम्य जीवन की सुखद शांतिमयी श्रौद्योगिक विश्रांति को निगल लिया है । श्राजकल हाथ से बनी वस्तु और यंत्र से निर्मित वस्तु में किसी प्रकार की होड़ हो ही नहीं सकती क्योंकि यंत्र-युग अपने साथ अपरिमित शक्ति एवं साधन लेकर श्राया है। उस संक्रान्ति काल में जब कि भारत की ग्रार्थिक स्थिति प्रत्येक दिन संकट- ग्रस्त होती जा रही थी, युग पुरुष महात्मा गाँधी ने यांत्रिक सभ्यता के विरुद्ध कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की आवाज उठाई। वे कुटीर उद्योगों के माध्यम से ही गांवों के देश भारत में ग्रार्थिक समता लाने के पक्ष में थे ।
‘थोड़ी पूंजी के द्वारा सीमित क्षेत्र में अपने हाथ से अपने घर में ही वस्तुनों को निर्माण करना’ कुटीर उद्योग कहलाता है । यह व्यवसाय प्रायः परम्परागत भी होता है। दरियाँ, गलीचे, रस्सियाँ बनाना, खद्दर, मोजे चौर शाल बुनना, लकड़ी, सोने, चाँदी, ताँबे, पीतल की दैनिक उपयोग में आनेवाली वस्तुओं का निर्माण करना आदि अनेक प्रकार की हस्तकला के कार्य इसके अन्तर्गत आते हैं।
प्रौद्योगिक दृष्टि से भारत का अतीतकाल अत्यंत स्वर्णिम एवं सुखद था । लगभग सभी प्रकार के उद्योग अपनी उन्नति की पराकाष्ठा में थे । ढाके की मलमल अपनी कलात्मकता में इतनी ऊँची उठ गई थी कि सात तद्द करके पहनी हुई ढाके की मलमल की साड़ी से सुसज्जित अपनी पुत्री को औरंगजेब ने डाँटते हुए कहा कि क्या तुमने लाज शरम सब घोल कर पी ली है। मुसलमानी राजाओं और नवाबों के द्वारा भी इसे विशेष प्रोत्साहन मिला । देशको आर्थिक दृष्टि से कुछ इस प्रकार व्यवस्थित किया गया था कि प्रायः प्रत्येक गाँव में अधिक से अधिक अार्थिक स्वालम्बन प्राप्त हो सके !

किन्तु अँग्रेजों के थाने से यांत्रिक सभ्यता की घुड़दौड़ में न टिक सकने के कारण ग्रामीण जीवन की श्रार्थिक स्वालम्बता छिन्न-भिन्न हो गयी । किसी तरह से उसकी घुटती हुई साँसों का सिलसिला जुड़ा रहा है। देश की राज- नीतिक पराधीनता भी इसके लिए उत्तरदायी है। ग्रामीण उद्योगों के समाप्त होते ही ग्राम्यजीवन का सारा सुख भी समाप्त हो गया ।
कुटीर उद्योग के पतन के कारण-
(१) अँग्रेजों के श्रागमन से छोटे छोटे राज्यों एवं इकाइयों के समाप्त हो जाने से इन उद्योग-धंधों का संरक्षण भी समाप्त हो गया । विदेशी शासकों की सहानुभूति के अभाव में ये असमय में ही मुरझा गये ।
(२) अँग्रेजी सभ्यता में सिर से पैर तक डूबा भारतीय शिक्षित वर्ग इन उद्योग-धंधों में असभ्यता की बूपाने लगा, इन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखने – लगा । पाश्चात्यं वस्तुओं की बाह्य चमक-दमक में सादगी के सौन्दर्य की उपेक्षा करने लगा । फलस्वरूप उपेक्षित होने से इसका पतन हुआ । श्रीमती वेरा का कहना है कि ‘भारत के धनी वर्गों ने पश्चिमी फैशन ग्रहण करना प्रारंभ किया, उन्होंने या तो पश्चिमी देशों से बनी वस्तुएँ खरीदना शुरू कर दिया अथवा ऐसी देशी वस्तुओंों को खरीदा जो पहले यूरोपियन लोगों को बेची जाती थीं और जिन्हें स्वयं भारतवासी वृणा की दृष्टि से देखते थे ।
(३) भारतीय मंडियों में ब्रिटिश माल को अधिक से अधिक लाकर कम से कम मूल्य पर बेचा गया जिससे इन कुटीर उद्योगों को भारी धक्का लगा ।
(४) मशीनों द्वारा बनाई गयी वस्तुत्रों की प्रतियोगिता में हाथ से बनी वस्तुएँ कब तक टिकतीं । श्रौद्योगिक क्रांति के युग में छोटे-छोटे हस्त- उद्योगों का अन्त हो जाना स्वाभाविक ही था ।
(५.) दमन द्वारा भी अँग्रेज शासकों ने भारतीय उद्योगों का अन्त किया। मलमल बुननेवाले बहुत से जुलाहों की अँगुलियाँ कटवा डाली गयीं । महत्व – श्री मेघनाद शाहा ऐसे कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि कुटीर

उद्योगों का पुनः पुनरुदार करना इस यांत्रिक एवं वैज्ञानिक युग में वैसा ही है जैसा मोटर और हवाई जहाज के स्थान पर बैलगाड़ी का चलाना यह एक प्रकार से ‘काल-विरोध’ ( Anachronism ) है | किन्तु यह मत अत्यन्त भ्रामक एवं त्रुटिपूर्ण है। भारत न तो विलायत है और न जर्मनी | यहाँ की परिस्थितियों, वातावरण एवं समस्याएँ पूर्ण रूप से कुटीर उद्योग के पक्ष में हैं । स्मरण रहे कि भारत की दरिद्रता का प्रधान कारण कुटीर उद्योगों का विनाश ही है। भारत में उत्पादन का पैमाना अत्यंत छोटा है। देश की अधिकांश जनता अथ तक भी छोटे-छोटे व्यवसायों से अपनी जीविका चलाती है। श्री राधाकमल मुकर्जी ने सन् १९४१ में अनुमान लगाया था कि केवल कर्चा उद्योग के द्वारा पचास लाख व्यक्तियों की रोजी चलती है । भारत के किसानों को वर्ष में कई महीने बेकार बैठना पड़ता है, कृषि मैं रोजगार की प्रकृति मौसमी होती है, लोग बेकार बैठे मक्खी मारते रहते हैं, इस बेरोजगारी को दूर करने के लिए कुटीर उद्योग का सहायक साधनों के रूप में विकास होना आवश्यक है । जापान, फ्रांस, जर्मनी, इटली, रूस सभी देशों में गौण उद्योग की प्रथा प्रचलित है।
भारत में कुटीर धंधों और छोटे पैमाने के कला-कौशल के विकास का महत्त्व इस रूप में भी विशेष महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि हम अपने संगठित बड़े पैमाने के उद्योगों में चोगुनी पंचगुनी वृद्धि भी कर दें तो भी देश में वृत्ति- दीनता की विशाल समस्या सुलझाई नहीं जा सकती । ऐसा करके हम केवल मुट्ठी भर व्यक्तियों की रोटी का ही प्रबन्ध कर सकते हैं। इस जटिल समस्या के सुलझाने का एकमात्र उपाय बड़े पैमाने के उद्योगों के साथ-साथ कुटीर उद्योगों का समुचित विकास ही है, जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों को सहायक व्यवसाय मिल सके और किसान को अपनी आय में वृद्धि करने का अवसर मिल जाय ।
गाँधी जी के विचार से बड़े पैमाने के उद्योगों को विशेष प्रोत्साहन देकर विशालकाय मशीनों के उपयोग को रोका जाय, तथा छोटे उद्योगों द्वारा पर्याप्त मात्रा में are reएँ उत्पादित की जायें। कुटीर उद्योग मनुष्य की स्वाभाविक रुचियों और प्राकृतिक योग्यताओं के विकास के लिए पूर्ण सुविधा प्रदान करता है। मशीन के मुँह से निकलने वाले एक राज टुकड़े को भी कौन अपना कह सकता है जब कि यह उसी मजदूर के रक्त- पसीने से तैयार हुआ है किन्तु हाथ से बनी हुई प्रत्येक वस्तु पर बनानेवाले के व्यक्तित्व की छाप पड़ी रहती है। यंत्रीकरण में मनुष्य का व्यक्तित्व- नैतिक, सांस्कृतिक तथा ग्रात्मिक पतन हो जाता है और वह केवल उस मशीन का एक निर्जीव पुर्जा मात्र रह जाता है।
कुटीर उद्योगों में आधुनिक श्रोद्योगीकरण के वे दोष नहीं पाए जाते हैं जो श्रौद्योगिक नगरों की भीड़भाड़, पूँजी तथा उद्योगों के केन्द्रीयकरण, लोक स्वास्थ्य की पेचीदी समस्याओं, मकानों की कमी तथा नैतिक पतन के कारण उत्पन्न होते हैं ।
कुटीर उद्योग थोड़ी पूँजी के द्वारा जीविका निर्वाद के साधन प्रस्तुत करते हैं । पारस्परिक सहयोग से कुटीर उद्योग बड़े पैमाने में भी परिणित किया जा सकता है । कुटीर उद्योग में छोटे-छोटे बालकों एवं त्रियों के परि- श्रम का भी सुन्दर उपयोग किया जा सकता है । कुटीर उद्योग की इन्हीं विशेषताओं से प्रभावित होकर बड़े-बड़े ग्रौद्योगिक राष्ट्रों में भी कुटीर उद्योग की प्रथा प्रचलित है । जापान में ४० प्रतिशत उद्योग शालाएँ कुटीर उद्योग से संचालित हैं । कहा जाता है कि जर्मनी में सब मनुष्यों को रोटी देने का प्रबन्ध करने के लिए हिटलर ने कुटीर उद्योग की ही शरण ली थी।

कुटीर उद्योग में कुछ दोष भी हैं, जैसे इसमें उत्पादन व्यय अधिक होता है । इसी कारण से कुटीर उद्योग सफलतापूर्वक बड़े पैमाने के उद्योगों की प्रतियोगिता में नहीं ठहर पाते। इसीलिए यह कहा जाता है कि यदि हम विदेशी व्यापार के आयात को पूर्णतया समाप्त नहीं कर देते हैं तो विदेशों से आनेवाले मशीन उत्पादित माल की प्रतियोगिता द्वारा कुटीर उद्योग समाप्त हो जायँगे । श्रतएव श्रावश्यकता इस बात की है कि श्रौद्यो गिक विकास की प्रत्येक भावी योजना में कुटीर उद्योगों और बड़े पैमाने के उद्योगों के बीच एक समझौता हो जाय ।

कुछ लोगों का कहना है कि कुटीर उद्योग आर्थिक अवनति के प्रतीक होते हैं किन्तु उन्हें जानना चाहिए कि जापान की अार्थिक उन्नति का एक- मात्र श्रेय कुटीर उद्योग को ही है ।
कुटीर उद्योगों को पूर्ण रूप से सफल बनाने के लिए यह नितांत श्राव- श्यक है कि उन्हें वैज्ञानिक पद्धति से संचालित किया जाय। तभी हमारे जीवन में पूर्ण शांति, सुख और समृद्धि की कल्याणकारी गूंज ध्वनित हो उठेगी। तभी हम सारे संसार के सामने शांतिपूर्ण ढंग से आर्थिक समस्यानों को सुलझाने का नया हल गर्व के साथ पेश कर सकेंगे | भगवान वह दिन शीघ्र लावे ।

Leave a Comment