- प्रस्तावना
- अनुशासन का
- अनुशासन के प्रकार
- अनुशासन से लाभ (व्यक्तिगत, सामाजिक तथा राष्ट्रीप)
- अनुशासन के विकास के उपाय
- उपसंहार
प्रस्तावना- ईश्वर की रचना में सर्वष्ठ रचना मानव है। इसलिए सन्तो महात्माओ ज्ञानियों ने ससार मे मानव-जीवन को दुर्लभ माना है। बुद्धि विवेक, भावना और शारीरिक कार्य क्षमता से दृष्टि से मनुष्य जीवन प्रकृति की ओर से दिया हुआ एक वरदान है। ससार में ज्ञान-विज्ञान तथा अन्य क्षेत्रो मे जो कुछ भी आश्चर्यजनक कार्य हुए हैं वे सब मनुष्य की ही देन हैं। ऐसा सुन्दर अवसर ‘मनुष्य- जीवन’ पाकर भी जो लोग अपना तथा दूसरों का हित नही कर पाते हैं और ऐसे शुभ अवसर को ही गवाँ देते हैं, उन जैसा मूर्ख कौन होगा? मानव-जीवन की साफलता में सबसे बड़ी बाधा है-अनुशासन का आभाव अनुशासन के आभाव मे मनुष्य में मनुष्यता ही उत्पन नहीं हो पाती उसे अपनी बुद्धि, विवेक और बल का साही उपयोग करना नहीं आ पाता। इससे उसका जीवन प्रभाव युक्त होकर आसफल हो जाता है। वह अपने जीवन मे स्वय भी कष्ट पाता है और दूसरो को कष्ट देता है।
अनुशासन का अर्थ – अनुशासन का ठीक – ठीक अर्थ समझने के लिए हमें यह समझना चाहिए कि अनुशासन मन की एक भावना का नाम है। जिस प्रकार प्रेम, दया और परोपकार मन की भावना होती है उसी प्रकार अनुशासन भी एक भावना ही है। ‘अनुशासन’ इन दो शब्दों से मिलकर ‘अनु+शासन’ बना है। ‘अनु’ का अर्थ है-पीछे और शासन का धर्म है-नियत्रण । नियंत्रण का भाव जिसके पीछे हो, वह अनुशासन कहलाता है। यहाँ यह और समझ लेना अवश्यक है कि यहाँ ‘पीछे’ का अर्थ आन्तरिक प्रेरणा से है। जब हम अपने आचरण और काया को आन्तरिक प्रेणा से नियंत्रित करते हैं तो वह अनुशासन कहलाता है। धीरे-धीरे नियमित अभ्यास से ही अनुशासन की भावना का विकास होता है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के हित में नियमों तथा मर्यादाओं का पालन करने के लिए अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं और भावनाओं पर नियंत्रण रखना ही अनुशासन कहलाता है।
अनुशासन के प्रकार- अनुशासन दो प्रकार का माना जाता है- 1 आतंरिक और 2 बाह्य । आतंरिक अनुशासन यह अनुशासन है जिसमे व्यक्ति अपनी स्वयं की प्रेणा से नियम और मर्यादाओं का पालन करता है वह स्वयं ही यह निश्चत करता है कि उसे अमुक-अमुक कार्य करने चाहिए और प्रमुक-अमुक कार्य नहीं करने चाहिए। वह अपनी भावनाओं पर स्वेच्छा से अंकुश लगाता है। चाहे उसे कितना ही कष्ट हो पर वह ऐसे कार्य नही करता जो नियम और मर्या दाम्रो के विरुद्ध हो । वाह्य धनुशासन यह अनुशासन होता है जिसमें किसी प्रकार दण्ड के भय से नियम और मर्यादायों का पालन करने के लिए व्यक्ति विवश होता है। इस प्रकार का अनुशासन अस्थायी होता है क्योंकि जब भी भय की स्थिति समाप्त होती है, व्यक्ति का आचरण अनियंत्रित हो जाता है और अनुशासन समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत आन्तरिक अनुशासन में स्थायित्व होता है। उनमें व्यक्ति दिनी के दबाव अथवा भय से नहीं, अपनी आन्तरिक प्रेरणा से ही अपने आचरण को नियंत्रित करता है । वास्तव में आतंरिक अनुशासन ही श्रेष्ठ पद्मासन है किन्तु जीवन में उपयोगिता की दृष्टि से बाहा अनुशासन का भी उतना ही महत्त्व है जितना आतरिक अनुशासन का। इसके अतिरिक्त निरंतर अभ्यास से बाह्य अनुशासन ही आतंरिक अनुशासन भी बन जाता है।
अनुशासन से लाभ- अनुशासन व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के हित में बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। अनुशासन से ही व्यक्ति के जीवन में सुधार होता है और वह श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त होकर अपना विकास कर पाता है। नम्रता, आज्ञा – पालन, सेवा, कठोर परिश्रम और नियमितता अनुशासन में हो जाती है। इनके अतिरिक्त धीर ऐसे अनेक श्रेष्ठ गुण है, जिनका विकास अनुशासन में ही होता है। जो व्यक्ति अनु-शासित होते है, अपने जीवन में विद्या, धन, बल और ख्याति बड़ी सरलता मे प्राप्त कर लेते है। एक मात्र अनुशासन का भाव उत्पन्न होने से मनुष्य-जीवन की सफलता के सभी द्वार खुल जाते हैं। अनुशासित व्यक्ति सभी को प्रिय लगता है और सब उसका हित चाहते हैं।
समाज और राष्ट्र अनुशासन से ही स्थिर रह पाते है और उन्नति करते हैं । यदि समाज में अनुशासन न हो, कुछ मान्य मर्यादाएं और नियम न हो तो उस मानव समाज नहीं कहा जा सकता। वह मनुष्य की एक भीड मात्र रह जायेगी। अनुशासन से ही उसमें सामजिकता का भाव उत्पन्न होता है के प्रति यादर छट के प्रति स्नेह, दुखी पीडित और आसहायों के प्रति
सहायता के भाव अनुशासन से ही उत्पन्न होते हैं। किसी वो स्प्ट न देना धीर दूसरों के साथ अच्छा बर्ताव करना अनुशासन ही सीखाता है। समाज में एकता, प्रेम, सहयोग और सहानुभूति के भाव मनुशासन से ही विकसित होते हैं जो उसके मूल यापार है। राष्ट्र की स्थिरता, सुरक्षा और उन्नति का माधार भी अनुशासन ही है। अनुशासन ही राष्ट्र दो महान बनाता है। अपने राष्ट्र को मातृभूमि के रूप मे मानना और उनकी सुरक्षा, स्वाधीनता तथा उन्नति के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देने की भावना अनुशासन से ही उत्पन्न होती है। यदि सेना और पुलिस में अनुवासन न हो तो न तो राष्ट्र की स्वाधीनता का रह सकती है और न ही कानून व्यवस्था रह सकती है। जिस राष्ट्र के नागरिक जितने अनुशासित होने हैं। वह राष्ट्र उतना ही सवत, समृद्ध मोर सुरक्षित होता है। इस विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के हित मे अनुशासन बहुत उपयोगी होता है।
अनुशासन के विकास के उपाय- अनुशासन व्यक्ति पर थोपा नहीं जा सकता, इसके लिए आदर्श उपस्थित करना आवश्यक होता है। यह अनुशासन की भावना का विवास करने के लिए यह आवश्यक है कि बड़े लोग घोटो के सामने मादर्श प्रस्तुत करें। उनके कार्य-कलापो पौर आचरणों को देख कर ही दोटे लोग उनसे प्ररेणा प्राप्त करते है। विद्यार्थियों और बालको को चाहिए कि वे बडो की माता का पालन करना सीखें। मात्रामात हो मनुशासन की पहली सीढी है । इससे बालकों में स्वयं की भावनाओं पर नियंत्रण रखने का अभ्यात प्रारम्भ होता है। प्रज्ञा-पालन जिनका स्वभाव बन जाता है उनमे नम्रता, कृष्ट सहिष्णुता श्रीर कठोर श्रम करने के गुण उत्पन्न हो जाते हैं या वे शन्ने – शन्ने पूर्ण अनुशासित हो जाते हैं।
उपसंहार – जीवन में अनुशासन का बहुत अधिक महत्त्व है। मनुष्य मे मनुष्यता अनुज्ञासन से ही विकसित हो पाती है। जिनके जीवन में अनुशासन नहीं होता वे मनुष्य होते हुए भी पशु-तुल्य ही रहते है। न तो वे अपनी कुत्सित भावनाओ पर अंकुश लगा पाते है और न ही दूसरो के हित के विचार उनके मस्तिष्क मे जाते है। येन मेन प्रकारे स्वार्थ साधन ही उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य हो जाता है। इससे उनका स्वयं का जीवन तो निसफल हो ही जाता है, साथ ही समाज घोर राष्ट्र को भी वे बहुत अधिक हानि पहुंचाते है।